Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद

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यह कहकर सब-के-सब पीछे की ओर फिर गए, और सूरदास के झोंपड़े की तरफ चले। उनके साथ ही कई हजार आदमी जय-जयकार करते हुए चले। विनय उनके आगे-आगे थे। राजा साहब और ब्रॉउन, दोनों खोए हुए-से खड़े थे। उनकी आँखों के सामने एक ऐसी घटना घटित हो रही थी, जो पुलिस के इतिहास में एक नूतन युग की सूचना दे रही थी, जो परम्परा के विरुध्द, मानव-प्रकृति के विरुध्द, नीति के विरुध्द थी। सरकार के वे पुराने सेवक, जिनमें से कितनों ही ने अपने जीवन का अधिकांश प्रजा का दमन करने ही में व्यतीत किया था, यों अकड़ते हुए चले जाएँ! अपना सर्वस्व, यहाँ तक कि प्राणों को भी समर्पित करने को तैयार हो जाएँ। राजा साहब अब तक उत्तारदायित्व के भार से काँप रहे थे, अब यह भय हुआ कि कहीं ये लोग मुझ पर टूट न पड़ें। ब्रॉउन तो घोड़े पर सवार आदमियों को हंटर मार-मारकर भगाने की चेष्टा कर रहा था और राजा साहब अपने लिए छिपने की कोई जगह तलाश कर रहे थे, लेकिन किसी ने उनकी तरफ ताका भी नहीं। सब-के-सब विजय-घोष करते हुए, तरल वेग से सूरदास की झोंपड़ी की ओर दौड़े चले जाते थे। वहाँ पहुँचकर देखा, तो झोंपड़े के चारों तरफ सैकड़ों आदमी खड़े थे। माहिर अली अपने आदमियों के साथ नीम के वृक्ष के नीचे खड़े नई सशस्त्र पुलिस की प्रतीक्षा कर रहे थे, हिम्मत न पड़ती थी कि इस व्यूह को चीरकर झोंपड़े के पास जाएँ। सबके आगे नायकराम कंधो पर लट्ठ रखे खड़े थे। इस व्यूह के मधय में, झोंपड़े के द्वार पर, सूरदास सिर झुकाए बैठा हुआ था, मानो धैर्य, आत्मबल और शांत तेज की सजी मूर्ति हो।

विनय को देखते ही नायकराम आकर बोला-भैया, तुम अब कुछ चिंता मत करो! मैं यहाँ सँभाल लूँगा। इधर महीनों से सूरदास से मेरी अनबन थी, बोल-चाल तक बंद था, पर आज उसका जीवट-जिगर देखकर दंग हो गया। एक अंधो अपाहिज में यह हियाव! हम लोग देखने ही को मिट्टी का यह बोझ लादे हुए हैं।
विनय-इंद्रदत्ता का मरना गजब हो गया।
नायकराम-भैया, दिल न छोटा करो, भगवान् की यही इच्छा होगी।
विनय-कितनी वीर-मृत्यु पाई है!
नायकराम-मैं तो खड़ा देखता ही था, माथे पर सिकन तक नहीं आई।
विनय-मुझे क्या मालूम था कि आज यह नौबत आएगी, नहीं तो पहले खुद जाता। वह अकेले सेवा-दल का काम सँभाल सकते थे, मैं नहीं सँभाल सकता। कितना सहासमुख था, कठिनाइयों को तो धयान में ही न लाते थे, आग में कूदने के लिए तैयार रहते थे। कुशल यही है कि अभी विवाह नहीं हुआ था।
नायकराम-घरवाले कितना जोर देते रहे, पर इन्होंने एक बार नहीं करके फिर हाँ न की।
विनय-एक युवती के प्राण बच गए।
नायकराम-कहाँ की बात भैया, ब्याह हो गया होता, तो वह इस तरह बेधड़क गोलियों के सामने जाते ही न। बेचारे माता-पिता का क्या हाल होगा!
विनय-रो-रोकर मर जाएँगे और क्या।
नायकराम-इतना अच्छा है कि कई भाई हैं, और घर के पोढ़े हैं।
विनय-देखो, इन सिपाहियों की क्या गति होती है। कल तक फौज़ आ जाएगी। इन गरीबों की भी कुछ फिक्र करनी चाहिए।
नायकराम-क्या फिकिर करोगे भैया? उनका कोर्टमार्शल होगा। भागकर कहाँ जाएँगे?
विनय-यही तो उनसे कहना है कि भागें नहीं, जो कुछ किया है, उसका यश लेने से न डरें। हवलदार को फाँसी हो जाएगी।
यह कहते हुए दोनों आदमी झोंपड़े के पास आए, तो हवलदार बोला-कुँवर साहब, मेरा तो कोर्टमार्शल होगा ही, मेरे बाल-बच्चों की खबर लीजिएगा। यह कहते-कहते वह धाड़ मार-मार रोने लगा।
बहुत-से आदमी जमा हो गए और कहने लगे-कुँवर साहब, चंदा खोल दीजिए। हवलदार! तुम सच्चे सूरमा हो, जो निर्बलों पर हाथ नहीं उठाते।
विनय-हवलदार, हमसे जो कुछ हो सकेगा, वह उठा न रखेंगे। आज तुमने हमारे मुख की लाली रख ली।
हवलदार-कुँवर साहब, मरने-जीने की चिंता नहीं, मरना तो एक दिन होगा ही, अपने भाइयों की सेवा करते हुए मारे जाने से बढ़कर और कौन मौत होगी? धन्य है आपको, जो सुख-विलास त्यागे हुए अभागों की रक्षा कर रहे हैं।
विनय-तुम्हारे साथ के जो आदमी नौकरी चाहें, उन्हें हमारे यहाँ जगह मिल सकती हैं।
हवलदार-देखिए, कौन बचता है और कौन मरता है।
राजा साहब ने अवसर पाया, तो मोटर पर बैठकर हवा हो गए। मि. ब्रॉउन सैनिक सहायता के विषय में जिलाधीश से परामर्श करने चले गए। माहिर अली और उनके सिपाही वहाँ जमे रहे। अंधोरा हो गया था, जनता भी एक-एक करके जाने लगी। सहसा सूरदास आकर बोला-कुँवरजी कहाँ हैं? धर्मावतार, हाथ-भर जमीन के लिए क्यों इतना झंझट करते हो? मेरे कारन आज इतने आदमियों की जान गई। मैं क्या जानता था कि राई का परबत हो जाएगा, नहीं तो अपने हाथों से इस झोंपड़े में आग लगा देता और मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाता। मुझे क्या करना था, जहाँ माँगता, वहीं पड़ा रहता। भैया, मुझसे यह नहीं देखा जाता कि मेरी झोंपड़ी के पीछे कितने ही घर उजड़ जाएँ। जब मर जाऊँ, तो जो जी में आए, करना।
विनय-तुम्हारी झोंपड़ी नहीं, यह हमारा जातीय मंदिर है। हम इस पर फावड़े चलते देखकर शांत नहीं बैठे रह सकते।
सूरदास-पहले मेरी देह पर फावड़ा चल चुकेगा, तब घर पर फावड़ा चलेगा।
विनय-और अगर आग लगा दें?
सूरदास-तब तो मेरी चिता बनी-बनाई है। भैया, मैं तुमसे और सब भाइयों से हाथ जोड़कर कहता हूँ कि अगर मेरे कारन किसी माँ की गोद सुनी हुई या मेरी कोई बहन विधवा हुई, तो मैं इस झोंपड़े में आग लगाकर जल मरूँगा।
विनय ने नायकराम से कहा-अब?
नायकराम-बात का धनी है; जो कहेगा, जरूर करेगा।
विनय-तो फिर अभी इसी तरह चलने दो। देखो, उधर से कल क्या गुल खिलता है। उनका इरादा देखकर हम लोग सोचेंगे, हमें क्या करना चाहिए। अब चलो, अपने वीरों की सद्गति करें। ये हमारी कौमी शहीद हैं, इनका जनाजा धूम से निकलना चाहिए।
नौ बजते-बजते नौ अर्थियाँ निकलीं और तीन जनाजे! आगे-आगे इंद्रदत्ता की अर्थी थी, पीछे-पीछे अन्य वीरों की। जनाजे कबरिस्तान की तरफ गए। अर्थियों के पीछे कोई दस हजार आदमी नंगे पाँव, सिर झुकाए, चले जाते थे। पग-पग पर समूह बढ़ता जाता था। चारों ओर से लोग दौड़े चले आते थे। लेकिन किसी के मुख पर शोक या वेदना का चिद्द न था, न किसी आँख में आँसू थे; न किसी कंठ से र् आर्त्तनाद की धवनि निकलती थी। इसके प्रतिकूल लोगों के हृदय गर्व से फूले हुए थे, आँखों में स्वदेशाभिमान का मद भरा हुआ था। यदि इस समय रास्ते में तोपें चढ़ा दी जातीं, तो भी जनता के कदम पीछे न हटते। न कहीं शोक-धवनि थी, न विजयनाद था, अलौकिक नि:स्तब्धता थी-भावमयी,प्रवाहमयी, उल्लासमयी!
रास्ते में राजा महेंद्रकुमार का भवन मिला। राजा साहब छत पर खड़े यह दृश्य देख रहे थे। द्वार पर सशस्त्र रक्षकों का एक दल संगीन चढ़ाए खड़ा था। ज्यों ही अर्थियाँ उनके द्वार के सामने से निकलीं, एक रमणी अंदर से निकलकर जन-प्रवाह में मिल गई। यह इंदु थी। उस पर किसी की निगाह न पड़ी। उसके हाथों में गुलाब के फूलों की एक माला थी, जो उसने स्वयं गूँथी थी। वह यह हार लिए हुए आगे बढ़ी और इंद्रदत्ता की अर्थी के पास जाकर अश्रुबिंदुओं के साथ उस पर चढ़ा दिया। विनय ने देख लिया। बोले-इंदु!-इंदु ने उनकी ओर जल-पूरित लोचनों से देखा, और कुछ न बोली, कुछ बोल न सकी।
गंगे! ऐसा प्रभावशाली दृश्य कदाचित् तुम्हारी आँखों ने भी न देखा होगा। तुमने बड़े-बड़े वीरों को भस्म का ढेर होते देखा है, जो शेरों का मुँह फेर सकते थे, बड़े-बड़े प्रतापी भूपति तुम्हारी आँखों के सामने राख में मिल गए, जिनके सिंहनाद से दिक्पाल थर्राते थे, बड़े-बड़े प्रभुत्वशाली योध्दा यहाँ चिताग्नि में समा गए। कोई यश और कीर्ति का उपासक था, कोई राज्य-विस्तार का, कोई मत्सर-ममत्व का। कितने ज्ञानी,विरागी, योगी, पंडित तुम्हारी आँखों के सामने चितारूढ़ हो गए। सच कहना, कभी तुम्हारा हृदय इतना आनंद-पुलकित हुआ था? कभी तुम्हारी तरंगों ने इस भाँति सिर उठाया था? अपने लिए सभी मरते हैं, कोई इह-लोक के लिए, कोई परलोक के लिए। आज तुम्हारी गोद में वे लोग आ रहे हैं, जो निष्काम थे, जिन्होंने पवित्र-विशुध्द न्याय की रक्षा के लिए अपने को बलिदान कर दिया!
और, ऐसा मंगलमय शोक-समाज भी तुमने कभी देखा, जिसका एक-एक अंग भ्रातृ-प्रेम, स्वजाति-प्रेम और वीर-भक्ति से परिपूर्ण हो?
रात-भर ज्वाला उठती रही, मानो वीरात्माएँ अग्नि-विमान पर बैठी हुई स्वर्ग-लोक को जा रही हैं।
ऊषा-काल की स्वर्णमयी किरणें चिताओं से प्रेमालिंगन करने लगीं। यह सूर्यदेव का आशीर्वाद था।
लौटते समय तक केवल गिने-गिनाए लोग रह गए थे। महिलाएँ वीरगान करती हुई चली आती थीं। रानी जाह्नवी आगे-आगे थीं, सोफी, इंदु और कई अन्य महिलाएँ पीछे। उनकी वीर-रस में डूबी हुई मधुर संगीत-धवनि प्रभात की आलोक-रश्मियों पर नृत्य कर रही थी, जैसे हृदय की तंत्रियों पर अनुराग नृत्य करता है।

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